इतिहास
आजादी के बाद से ही रतलाम राज्य एक स्वतंत्र राज्य रहा है। जिला एवं सत्र न्यायालय वर्ष 1920 से लगातार कार्य कर रहा है। पर्यवेक्षक के लिए मालवा क्षेत्र के 12 राज्यों को एक उच्च न्यायालय मिला हुआ था जो सभी स्थानों का भ्रमण एवं सुनवाई करता था। उक्त न्यायालय के न्यायाधीश को “दंभी न्यायाधीश” कहा जाता था। जिनकी सीटें दरबार हॉल में थीं, लेकिन मुकदमों की सुनवाई मोती महल में होती थी। यहां उस समय के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों में से एक श्री रतन लाल को याद किया जाता है, जो धार राज्य से थे।उस समय आपराधिक साजिश और अन्य मामलों की सुनवाई के लिए अलग-अलग नियम बनाए गए थे, जिनमें से एक किताब है जिसका नाम है “ऐन सिविल”। इस पुस्तक में उपरोक्त मुकदमों की सुनवाई के लिए विभिन्न नियम लिखे गए हैं, जिन पर मुकदमों की सुनवाई की गई।रियासत के समय जिला न्यायालय की इमारत का उपयोग “श्रीमाली वास” की इमारत में किया जाता था, जो एक छोटे गलियारे के रूप में थी। उसके बाद इस भवन का उपयोग सरकारी स्कूल के रूप में किया जाने लगा। वर्तमान में उक्त भवन पूरी तरह से गिर चुका है और उसके स्थान पर नया भवन खड़ा है।आजादी के बाद न्यायालय के नये भवन की जमीन के लिए बारह सदस्यीय अधिवक्ता संघ ने लंबा संघर्ष किया था. 13 फरवरी 1956 को तत्कालीन मध्यभारत एवं केन्द्रीय मंत्री श्री वी.वी.द्रविड़ द्वारा रतलाम के शिलान्यास भवन का निर्माण कराया गया। निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद 2 अक्टूबर 1960 को जिला न्यायालय, रतलाम के नये भवन का उद्घाटन माननीय श्री पी.वी. दीक्षित, मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश एवं माननीय। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। शिलान्यास एवं उद्घाटन से संबंधित उक्त जानकारी पत्थर पर उत्कीर्ण है जो आज भी जिला न्यायालय भवन रतलाम में लगी हुई है। माननीय उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश के ज्ञापन के अनुसार जो न्यायालय भवन 60 वर्ष या उससे अधिक पुराना हो और जिसमें न्यायालय संचालित हो रहे हों, उसे हेरिटेज न्यायालय भवन कहा जा सकता है। इस प्रकार रतलाम जिला न्यायालय हेरिटेज कोर्ट बिल्डिंग की श्रेणी में आता है।न्यायालय भवन अंग्रेजी के “L” अक्षर के आकार से बना है। शुरुआत में केवल पहली और दूसरी मंजिल पर तीन तीन कोर्ट रूम बनाए गए थे, लेकिन वर्ष 1970 में इस इमारत का बड़े पैमाने पर विस्तार किया गया।प्रारंभ में झाबुआ, मंदसौर और नीमच के क्षेत्राधिकार को रतलाम जिला न्यायालय के क्षेत्राधिकार में शामिल किया गया था, लेकिन बाद में झाबुआ के बाद पहले मंदसौर और फिर नीमच को अलग न्यायिक जिले की मान्यता दी गई थी। वर्तमान में, न्यायालय रतलाम के जिला न्यायालय में जावरा, आलोट और सैलाना तहसील न्यायालयों में कार्यरत है। जिला न्यायालय, रतलाम के अभिलेखागार में वर्ष 1932-33 में सब जज कोर्ट द्वारा सुने गये मुकदमों के रिकार्ड भी उपलब्ध थे।प्रसिद्ध वकील एवं सामाजिक कार्यकर्ता वरदीत पलवल ने रतलाम के नागरिकों की संघर्षपूर्ण मूलभूत सुविधाओं की मांग को लेकर तत्कालीन नगर निगम के विरुद्ध स्थानीय न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी। दरअसल, रतलाम के शास्त्री नगर नाले की समस्या के समाधान में निगम ने फंड नहीं होने की बात कहकर असमर्थता जताई थी। पोरवाल ने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी और अंतिम फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट गए। 1980 में रतलाम की जनता के पक्ष में महत्वपूर्ण निर्णय आये। वर्देचंद पोरवाल द्वारा उस समय के रतलाम नगर निगम के खिलाफ दायर याचिका में यह पाया गया कि नगर पालिकाओं की मदद से सहयोग वर्ष में शहर का निर्माण किया जा रहा है, लेकिन वे अपने क्षेत्रों में बुनियादी सार्वजनिक सुविधाएं प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं या ऐसा है करने की दिशा में आवश्यक प्रयास नहीं करना। अगर रतलाम के मामले को ध्यान में रखें तो सुप्रीम कोर्ट ने जो तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत तय किए हैं, उन्हें मानने के लिए देश के सभी शहरी निकाय बाध्य हैं। रतलाम के हक के लिए देश की जीत का यह पहला फैसला पूरे देश में खूब चर्चा में रहा। डिप्पुपेन के बच्चों का पसंदीदा टेनिंग टेनिस। अधिनियम 1980 बीके1622 |